तवायफ़

तवायफ़ हूँ इसका मुझे कोई गम नहीं है
बस इस बात का मुझे हरदम मलाल है
मुझसे लोग क्यों नफ़रत करते बताओ
करते न क्यों मेरा कोई कभी ख़याल हैं

आते जब भी कोई पास मेरे कभी भी
रौंदता मेरे जिस्म को बेपरवाह होकर
किसी को न हमदर्दी हमसे होती है
बस मेरी आँखें तन्हाई में रोटी हैं

खरीद लेते मेरे जिस्म को चंद कागजों से
फिर जमाते मुझपे पूरा ही अधिकार हैं
मुझे लहूलुहान करते कभी तो बेरहम
लगता मर्दों को न मिलता कोई और शिकार है

ख्वाहिशें मेरी दफ़न हो जाती न जाने कब
ख़्वाबों को मेरे न कोई आसमाँ मिलता
कैद हो जाती मेरी रूह भी हवालात की तरह
एक छोटी सी चारदीवारी में बस बंद हो जाती

मर जाती मैं जीने की हद तक जीने के हक में
नोची जाती कभी इंसानों के हाथों जानवरों की तरह
काँप जाती मेरी रूह भी मेरे जिस्म की हालत देख
अगले पल फिर से खरीदी जाती बेंची जाती रोज की तरह

फ़क्र होता मुझे भी कभी-कभी ख़ुद पर बहुत
कम-से-कम उन दरिंदों की हवस तो बुझाती हूँ
जो समाज के लिए समाज में कलंक हो सकते हैं
बुझाने को अपनी प्यास किसी मासूम को रौंद सकते हैं

पर जो भी हो मेरे भी कुछ ज़ज्बात हैं कुछ ख्वाहिशें हैं
मेरे खयालातों में मेरी प्यारी सी दुनिया बसती है
एक प्यारे से घरौंदें में सारी खुशियाँ रहती हैं हमेशा
बस जीती जाती हूँ इस आस पर की कभी न कभी जिंदगी से मैं भी जीतूंगी

बस यही सोचते सोचते मेरे जज्बात दिल में ही दफ़न हो जाते हैं
और हररोज की तरह मेरा खरीदार आता है ले जाता है
यूज़ करता है मुझे डिस्पोजल की तरह फेंक देता है
बस कुछ ऐसे मेरी जिंदगी चलती है कुछ कटती है

मौलिक एवम् स्वरचित

©अनिल कुमार "निश्छल"
हमीरपुर(बाँदा) उ० प्र०

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