गीत



गीत-
सुधीर "बादल"

ऐ अभिमानी, मन शैतानी ,क्यों नभ शीश उठाए तुम
बोलो ! क्या अब करूँ तुम्हारा चाहें या  बिसराएँ हम।

जो बीती हैं रातें तन्हा
कैसे उनको बिसरायें,
पल अनमोल जो हुए हताहत
किसको जाके दिखलाये ।

हुआ हृदय सह सह कर पत्थर क्यों कर फूल चढाएँ हम ।।
बोलो ! क्या अब करूँ तुम्हारा, चाहें या  बिसराएँ हम।

बात बात पर मुँह बिचकाना
प्रिये बहुत ही खलता था,
ऐसा नही कि अरमानों के संग
खुद भी नही मचलता था।

अपशब्दों से घायल अंतर जाकर किसे दिखाएँ हम।।
बोलो ! क्या अब करूँ तुम्हारा, चाहें या  बिसराएँ हम।

बात- बात पर बातें गढ़ना
भाव न देना भावों को,
तिल- तिल मरता रहा निरंतर
अगणित लिए हिसाबों को।

क्यों उनको अब जाके निहारे, क्यों सिर बोझ बढाएँ हम ।
बोलो ! क्या अब करूँ तुम्हारा,चाहें या  बिसराएँ हम।

जिन लमहों को जीना था हाय
उनको रो- रो गवां दिया,
मतभेदों के चलते "बादल"
खुद ही खुद को  ढहा दिया ।

ऐ संगदिल क्यों साथ रहें अब, क्यों खुद को समझाएँ हम ।
बोलो ! क्या अब करूँ तुम्हारा,चाहें या  बिसराएँ हम।

सुधीर"बादल!(ओजस्वी कवि)
बड़ागाँव, शाहजहाँपुर उ.प्र.
8574518904

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