शायद यही होना था

एक कहानी लिखने का प्रयास
दिन-रविवार
दिनाँक-27/11/2018
रचना-" शायद यही होना था"

शाम का समय था। भीड़-भाड़ वाले चौराहे के एक कोने में एक उम्रदराज व्यक्ति बैठा था; जिसके तन के कपड़े उसकी कहानी बयाँ कर रहे थे। उम्र शायद वही कुछ 70-80 साल की होगी।नज़र ने साथ देना छोड़ दिया है।शरीर की हड्डियाँ और मासपेशियाँ भी दम तोड़ने को आतुर है।शरीर की एक-एक हड्डी दिख रही हैं। माँसपेशियों का मास अपनी जगह चिपक गया है।शरीर की त्वचा अपना अनुभव बयाँ कर रही है।खैर, ये तो बुढ़ापे में सभी के साथ होता है; उस वृद्ध के साथ कुछ नया नहीं हुआ था।
             जिस चौराहे में वह बैठा था;  वहाँ से हजारों गाडियाँ साँय-साँय करती हुई निकल रहीं थीं, जो मनुष्य की संवेदनहीनता का बखूबी बखान करतीं थीं।
             सहसा एक चमचमाती चार पहिया कार उसके पास आकर रुकती है; जिससे एक नामचीन शख्स "मधुर मंटोला" निकलता है। पैरों में चमचमाते जूते, गले में रंगीन टाई, इस्तरी किये हुए कपड़े एवम् ऊपर से पहने हुए कोट और आँखों में काला चश्मा काफ़ी थी; उस नामचीन व्यक्ति के व्यक्तित्व को दर्शाने हेतु।
          ख़ैर; जो भी हो, वह शख़्स गाड़ी से उतरकर उस वृद्ध के पास जाता है। उसे कुछ पैसे, कुछ दैनिक जरूरत की चीजें एवम् कुछ खाने को देकर वहाँ से चला जाता है।
            यह सबकुछ वहीं पर खड़ा एक नवयुवक 'राहुल' देख रहा था।उससे रहा नहीं गया। वह जल्दी-जल्दी उस वृद्ध (बुधुवा-बुध्दराज) के पास जाता है; और आखिर उससे पूँछ ही लेता है,कि जो शख़्स अभी चार पहिये से आया था, "वह कौन था?"
        कुछ देर तक वृद्ध मूकबधिर बना रहता है; परंतु राहुल के ज्यादा हठ करने से बुधुवा उस नामचीन शख़्स के बारे में बताता है।
        'बेटा राहुल', वह महान, नामचीन एवम् अमीरजादा शख़्स कोई और नहीं मेरा खून, मेरा सगा बेटा है;  जिसमें इंसान विशेष के लिए कोई प्यार कोई स्नेह नहीं है।
             
     ख़ैर बेटा तो बेटा ही है; कैसा भी हो आखिर मेरा खून है।इस बेटे के सिवा कोई नहीं है मेरा। क्रूर काल ने मेरी पत्नी "सुघना" को समय से पहले उठा लिया।सुघना के जाने के बाद मेरा तो जीना ही मुहाल हो गया है।दो जून की रोटी भी बमुश्किल से हलक के नीचे उतरती है।
              राहुल-'' बाबा जी,आप क्या करते थे? कोई काम धंधा तो होगा ही आपका अपना या इतने उम्रदराज होने के बाद भी जिंदगी में कुछ  किया नहीं है क्या?"
              बुधुवा-" बेटा राहुल, मैं एक किसान था।घर में 4 बीघे जमीन है; उसी से कुछ उपज मिल जाती थी, जिससे परिवार का पालन-पोषण हो जाता था।"
            राहुल(आश्चर्य भरी नजरों से)-" बाबा जी, फिर आपका लड़का! वो नामचीन शख़्सियत, कैसे?"
              बुधुवा-"बेटा इंसान चाहे तो अपनी दृढ़इच्छाशक्ति, बुद्धिबल एवम् विवेक से पल भर में जमीन से आसमान में पहुँच सकता है, पर्वतों को लांघ सकता है, जो चाहे एक झटके में पा सकता है।असंभव कार्यों को संभव बना सकता है; और मेरा बेटा तो बस अमीर ही है।अमीर तो कोई भी बन सकता है।" हाँ, इसकी अमीरी में मेरी फ़क़ीरी और जी तोड़ मेहनत का अमूल्य योगदान है।पर बेटा, जब किसी इंसान की इमारतें ऊँची हो जाती हैं; तो वे नीचे देखना पसंद नहीं करते। हम जैसे लोगों को पैर की धूल भी नहीं समझते।(बोलते-बोलते बुधुवा का गला रुंध जाता है)
                
राहुल का दिल पसीजता है; परंतु वह अभी भी बुधुवा के पास ही खड़ा है; और  मन में उपजे अंतर्द्वंद्व से जीतने की कोशिश करता है; लेकिन हार जाता है।चुपचाप सड़क के किनारे बैठ जाता है।
               सोचता है-" क्या यही जीवन का अंत है?"
     सभी माँ-बाप कितनी उम्मीदों से बच्चों को पालपोसकर बड़ा करते हैं; लेकिन यह क्या? उनकी इस ममता का यही सिला मिलता है क्या?
             यह तो केवल एक दृश्य है; यह न जाने लाखों लोगों की कहानी कह रहा है।
    (थोड़ी देर बाद)
            राहुल ख़ुद को संभालता है और सरसरी निगाहों से बुधुवा को इधर-उधर ढूँढता है।उसकी निगाहें मुखबिर की तरह बस बुधुवा को ही तलाशें जा रही थीं।धीरे-धीरे वह दूसरे चौराहे में पहुँच गया।
                 कई लोगों को बुधुवा का हुलिया, कद-काठी और नाक-नक्स बताकर उसके बारे में जानने की कोशिश करता है। उसके सारे प्रयास निष्फल रहते हैं।आखिरकार हारकर बैठ जाता है।
             पास में ही रेलवे स्टेशन है; जहाँ से गुजरती ट्रेनों की गड़गड़ाती आवाज में आसपास का शोर गुम हो रहा है।
               तभी उ०प्र० संपर्क क्रांति के आने का एनाउंस होता है; कि उक्त ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म नं० 1 में आएगी। लगभग 10 मिनट बाद हवा को चीरते और बादलों की तरह गरजती ट्रेन आ जाती है; और छोड़ जाती है अपने पीछे एक अधूरी कहानी, शायद जो  कभी पूरी नहीं हो सकती।
           राहुल को अगले दिन मालूम चलता है कि एक वृद्ध ट्रेन से कट गया है; और पीछे छोड़ गया अनगिनत प्रश्न जिनका उ० मिलना मुश्किल है।
           राहुल बेसुध, बेचैन होकर ट्रेन की पटरी की तरफ़ दौड़ता है; परंतु उस वृद्ध की लाश को सीज किया जा चुका है।अभी तक शिनाख्त नहीं हो पाई है।
             राहुल को शक हो जाता है कि कहीं यह वृद्ध वही बुधुवा तो नही है। बार-बार उस अंजान के लिए  दिल में सहानुभूति के उद्गार आते-जाते।
            राहुल उस दिन स्टेशन में ही सो जाता है।सुबह अखबार पढ़ता है जिसकी मुख्य पंक्ति थी-" अमीरी ने मारा या फ़कीरी ने-एक वृद्ध को"
            उधर 'मधुर मंटोला' भी अखबार पढ़कर बेचैन होता है; लेकिन अपने बाप की लाश तक न लेना उसे अंदर तक कचोट रहा था; क्योंकि एक तरफ़ उसकी प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी तो एक तरफ़ उसके बाप की लाश।
             उसकी प्रतिष्ठा के सामने बाप की लाश का वजन कम पड़ जाता है। मधुर बाप(बुधुवा) की लाश लेने, उसकी शिनाख़्त करने नहीं जाता ।वह घर में ही पड़ा रहता है।
            लेकिन राहुल उसकी लाश की  शिनाख़्त करता है; और उसकी लाश (बुधुवा) को मुखाग्नि देकर अंतिम संस्कार करता है।
             राहुल का दिल क्षोभ से भर जाता है; आँखों से बहती अश्रुधारा उससे चींख-चींखकर कह रही थी कि "शायद यही होना था।"

मौलिक, अप्रकाशित एवम् स्वरचित
अनिल कुमार "निश्छल"
हमीरपुर (बाँदा) उ०प्र०

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