कुटिल बुढ़ापा

Kutil-budhapa-
Vijay-Kalyani-Tiwari
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सब कुछ लगा दांव पर अपने
पाला पोषा बड़ा किया
अपने तन का रक्त पिलाया
तब पैरों पर खड़ा किया।

सोचा था जब खाट पड़ूंगा
तब सिरहाने पर पाउंगा
उसके सबल भुजाओं के बल
निज पैरों पर चल पाउंगा ।

बालों पर उंगलियां घुमाता
स्नेह शब्द संबोधित होगा
हृदय पीर को उपचारित कर
भाव पुष्प अरुणोदित होगा ।

परम धाम तक जाने का भी
सहज शांति मय पथ आएगा
नीर भरे नयनों मर्माहत
कांधे पर मुझे उठा लाएगा ।

जब यथार्थ के सम्मुख आया
सब कुछ बदला बदला है
पतन गर्त जाने को आतुर
कभी कहां कोई सम्हला है ।

दीवारों से बातें करना
कठिन क्रूर जीवन का हिस्सा
वक्त नही है पास किसी के
किसे सुनाऊं अपना किस्सा ।

नीर लिए दहलीज ताकता
देख रहा है राह तुम्हारा
परिवर्तन के पथ पर चलते
ढूंढ़ लिए सब स्वजन किनारा।

अब सूना पन रास आ गया
शोर दुखी कर जाता है
सूने पन से , अंधकार से
अपना कुछ गहरा नाता है ।

प्रगति पथिक बन आज आदमी
लक्ष्य हीन चल रहा निरंतर
सब कुछ ठीक ठाक दिखता पर
मरा आदमी उसके अंदर ।

अपनों का इस तरह बदलना
अब अंतर मन नही सताता
अच्छा होता विधि विधान से
कुटिल बुढ़ापा ही हट जाता ।

विजय कल्याणी तिवारी
बिलासपुर छग,अभिव्यक्ति-710

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