चंद कागजों की ख़ातिर;ईमान बेंच देते हैं,
कुछ सिरफिरे दुनिया में;संतान बेंच देते हैं।
अब आबरू;अस्मत की फ़िक्र;कहाँ किसको,
यहाँ मौका मिलते ही;आन बेंच देते हैं।
निकले गर स्वारथ जरा-सा;कहीं भी कभी भी,
नहीं चूकते फिर तो;भगवान बेंच देते हैं।
देशद्रोहियों के;अक्सर;मजहब नहीं होते,
मिलकर दुश्मनों से; देश की शान बेंच देते हैं।
बने फिरते हैं कुछ; अपने मुँह मियाँ मिट्ठू,
धीरे-धीरे लोग ऐसे;पहचान बेंच देते हैं।
नशाखोरों को कहाँ;किसी से; कभी;हमदर्दी,
कभी-कभी अपने दिल के टुकड़ों(परिवार)के;अरमान बेंच देते।
कुछ अपने;अपनों को;पहचानते तक नहीं हैं यहाँ,
कुछ ग़ैरों की ख़ातिर;अपनी जान बेंच देते हैं।
दर्द बराबर होता है;चाहे अमीर को हो या गरीब को,
कुछ लोग पैसों के गुरूर में;अंदर का इंसान बेंच देते हैं।
ऐहतियात बरतते हैं कुछ;रिश्तों को संजोनें के लिए,
कुछ सरेआम सभा में;अपना मान बेंच देते हैं।
आपसी कौमी एकता ;भाईचारे को बनाए रखना "निश्छल'',
कुछ लोग हिन्दू तो ;कोई मुसलमान बेंच देते हैं।
मौलिक एवम् स्वरचित
अनिल कुमार "निश्छल''
शिवनी,हमीरपुर(बाँदा) उ०प्र०
सदस्य-साहित्य अर्पण-एक पहल
9170146283
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