मंजिलें ऐसे ही नहीं मिलीं

मन्जिलें ऐसे ही नहीं मिलीं





आसमाँ की चाहत दिल में रखता रहा
मंजिलों से मुहब्बत कब से करता रहा

ख़्वाहिशें उड़ान  को आतुर हैं कब से
फिर हर तूफ़ान से हर कसर भिड़ता रहा

हिम्मत भी अब तो फ़ौलादी हो गयी है
हर सिम्त आँधियों से हर कदम लड़ता रहा

बुझ गए दिए सारे साथ मेरे जो जले थे
बस अकेला अब तलक मैं ही जलता रहा

मानता हूँ कि लाख मुश्किलें आयीं
मुश्किलों को भेदकर मैं सदा चलता रहा

अनिल कुमार निश्छल

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1 Comments

Anonymous said…
ख़ूब!!!कमाल!!!!