"ईर्ष्या"
देख पड़ोसी की उन्नति हम सब जाने क्यों घबराते हैं;
धीरे-धीरे ही सही अंदर से ही अक्सर कुढ़ते जाते हैं।
कैसे गिरे उक्त शख़्स धरातल में हर पैतरें आजमाते हैं;
पुरजोर कोशिशें करते हम हरदम न कभी शरमाते हैं।
उत्तुंग शिखर कैसे मिल गया इसे सोंच-सोंच घबराते हैं;
करते न कोशिशें न मिन्नतें कभी ख़ुद को यूँ ही तड़पाते हैं।
आते जाते मुस्करा के मिलते हैं और मक्ख़न भी लगाते हैं;
पीठ पीछे ही हरकोई हरकिसी पे छींटें कसते जाते हैं।
अनिल कुमार "निश्छल"
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