घर अपना चलाता हूँ


GharApnaChalataHun
DrNareshSagar.html
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*किसी के भी पसीने की, सही कीमत चुकाता हूं*
  *मैं भी मजदूर हूं यारों, बहाकर ही कमाता हूं*

*मुझे बारिश की बूंदों से, कब निस्बत रही कोई*
 *मेरा तन भीग जाता है , मैं जब रिक्शा चलाता हूं*

*ये सूरज भी कोई मुझसे ,हिमाकत कर नहीं सकता*
*मैं इसकी आग से ही तो, पसीनें को सुखाता हूं*

*पूस की सर्द रातों को ,क्या जानें महल वाले*
*मैं कोहरे की चादर को ,ओढ़ता हूं बिछाता  हूं*

*मेरे बोझे से व्याकुल ,कभी होगी नहीं धरती*
*मैं अपने हिस्से का खुद ही, रोज बोझा उठाता हूं*

*मेरे बच्चों के ख्वाबों का, खिलौना टूट जाता है*
*बहुत रोता हूं खाली हाथ, जब मेले से आता हूं*

*किसी की देखकर चुपड़ी, कभी ना जी मेरा मचला*
*मैं रूखी सूखी खाकर ही, घर अपना चलाता हूं*

*ना चोरों से हमें खतरा, ना मौसम के तमाशे से*
*वक्त जैसा भी पड़ता है, मैं ऐसा ही  ढल जाता हूं*

*थकन सारी खत्म पल में, मेरी हो जाती तब "सागर"*
 *शाम को लौट कर ,बच्चों को सीने से लगाता हूं*
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बेखौफ शायर.. डॉ. नरेश "सागर"

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