ग़ज़ल









   

शहर आया तो   गाँव बुलाने लगा
बुजुर्गों की बातें  याद दिलाने लगा

अब सबके सब  समझदार हो गये
सबको यूँ ही अकेलापन खाने लगा

छोटी-छोटी बातों  पे  रूठने लगे हैं
खुद की गल्ती ग़ैरों की बताने लगा

लहू सस्ता हो गया चीजों के सामने
आदमी अपनों से पैसा कमाने लगा

जज़्बात दबे के दबे रह गये जहन में
अपनों को खुद ही  ग़ैर बताने लगा

अब चौपालें बेवज़ह ओझल हो गयीं
सुबहो-शाम डर को डर सताने लगा

किसको कहें अपना 'निश्छल' यहाँ
आस्तीनों में सांप नज़र आने लगा


अनिल कुमार निश्छल

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